भगवान तुम्हारे दर पे भक्त आन खड़े हैं

  भगवान तुम्हारे दर पे भक्त आन खड़े हैं संसार के बंधन से परेशान खड़े हैं, परेशान खड़े हैं ओ मालिक मेरे ओ मालिक मेरे)- 2 १. संसार के निराले कलाकार तुम्ही हो, सब जीव जंतुओं के सृजनहार तुम्हीं हो हम प्रभुका मन में लिए ध्यान खड़े हैं .... संसार के बंधन... २. तुम वेद ज्ञान दाता,पिताओं के पिता हो वह राज कौन सा है, जो तुमसे छिपा हो हम तो हैं अनाड़ी बालक बिना ज्ञान खड़े हैं संसार के बंधन... ३. सुनकर विनय हमारी स्वीकार करोगे मंझधार में है नैया प्रभु पार करोगे हर कदम कदम पर आके ये तूफान खड़े हैं संसार के बंधन... ४.दुनिया में आप जैसा कहीं ओर नहीं है इस ठौर के बराबर कहीं ठौर नहीं है अपनी तो पथिक यह मंजिल जो पहचान खड़े हैं संसार के बंधन....

किसी एक ही कर्मकी दक्षिणा देनेमें— दाताके वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) भेदसे दक्षिणामें शास्त्रानुसार अंतर होता है।

 किसी एक ही कर्मकी दक्षिणा देनेमें— दाताके वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) भेदसे दक्षिणामें शास्त्रानुसार अंतर होता है।


*#ब्राह्मण_यजमानको—*

शास्त्रोक्त नियत दक्षिणा ही देनी चाहिए।


*#क्षत्रिय_यजमानको—*

 दुगुनी दक्षिणा देनी चाहिए।


*#वैश्य_यजमान—*

 तिनगुनी दक्षिणा देवे,और 


*#शूद्र_यजमान—*

(जिनके यहां कुछ शास्त्रीय कर्म करनेका अधिकार है ऐसे सत्शूद्रों) को चौगुनी दक्षिणा देनी चाहिए।


*यथोक्तां दक्षिणां दद्याद् ब्राह्मण: क्षत्रियस्तथा।*

*द्विगुणां वैश्यवर्यस्तु त्रिगुणां शूद्रसत्तम:।*

*चतुर्गुणां प्रयच्छेत मन्त्रसिद्धिविधीच्छया।।*                

            (#सिद्धान्तसारसंग्रहे)


इस श्लोकमें कही गई दक्षिणा साधारण यजमानोंके लिए है। यदि यजमान धनाढ्य या निर्धन है तो उनकी व्यवस्था इस प्रकार है—


*धनिको द्विगुणं दद्यात् त्रिगुणन्तु महाधन:।*

*यवार्द्धं तु दरिद्रेण दातव्यं पुण्यलब्घये।।* *दद्यान्महादरिद्रस्तु तदर्द्ध शुल्कमेव तु।।*

                   (#वाराहपुराण)


*#धनिक_यजमान—*

अपने वर्णके अनुसार नियत दक्षिणाको दुगुनी देवें।


*#महाधनिक_यजमानको—*

अपने वर्णके अनुसार कही गई दक्षिणाको तिगुना करके देना चाहिए।


*#दरिद्र_यजमानको—*

पहले वाले श्लोकमें कही गई साधारण दक्षिणाको अपने वर्णके अनुसार आधी दक्षिणा ही देनी चाहिए।


*#महादरिद्र_यजमानको—* पुण्यफलकी प्राप्तिके लिए अपने वर्णके अनुसार निर्णीत दक्षिणाका चौथाई भाग ही देना चाहिए।


*यदि इसप्रकार शास्त्रद्वारा कथित दक्षिणा देनेका किसीके पास धन या मन नहीं है, तो उस व्यक्तिको यज्ञादि कर्म नहीं कराना चाहिए*


क्योंकि अल्प दक्षिणा देनेसे कर्मका फल प्राप्त नहीं होता,  ऐसे व्यक्तियोंको भगवान्नाम संकीर्तन आदि पुण्य कार्य करना चाहिए—


*पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रिय:।*

*न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते ह कथञ्चन।।*

          (#मनुस्मृति:- 11/39)


*#दक्षिणाहीन_यज्ञ_शत्रु_है*—


*अन्नहीनो दहेद्राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विज:।*

*यष्टारं दक्षिणाहीनं नास्ति यज्ञसमो रिपु:।।*


*#अर्थ—* यज्ञमें अन्नकी ( हवन, दान या भोजनके रूपमें) कमी होनेपर यज्ञ संपूर्ण राष्ट्रको पीड़ा देता है।


मंत्रसे हीन (अशुद्धमंत्र, कम मंत्र या ठीक विधि न होने) पर यज्ञ ऋत्विजों (ब्राह्मणों) को पीडा दायक होता है। 


और शास्त्रके द्वारा निर्णीत दक्षिणामें कमी करनेपर यज्ञ यजमानका नाश करता है।


 *अतः विधिविहीन यज्ञके समान कोई प्रबल शत्रु नहीं है।*


 इसलिए यज्ञका संपूर्ण फल प्राप्त करनेके लिए हमें शास्त्रोक्त विधिसे ही यज्ञ करना चाहिए, अन्यथा विधिविहीन यज्ञको तामसयज्ञ कहा गया है—


*विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।* 

*श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।*

 (#श्रीमद्भागवतगीता-17/13)


*#अर्थ—* शास्त्रीय विधि रहित, शुद्ध हवि रहित, मंत्रहीन, श्रद्धा और उचित दक्षिणा रहित यज्ञ तामसयज्ञ कहे गए हैं।


अधिक से अधिक दक्षिणा देनेसे कर्मका फल भी अधिक से अधिक प्राप्त होता है ।


और अल्प से अल्प दक्षिणा देने पर कर्मका फल भी अल्प होता जाता है।


 इसलिए पर्याप्त दक्षिणा देनी चाहिए—


*यथा यथा बहुं दद्यात्तथा तथा फलं लभेत्।*

*यथा यथा स्वल्पं दद्यात्तथा तथा फलं लभेत्।।*

(#यज्ञमीमांसायां_स्वयंभूपुराणे)


*#यज्ञाचार्यकी दूनीदक्षिणा—*

*सर्वत्र द्विगुणां दद्यादाचार्याय तु दक्षिणाम्।*

*बहुपूरुषनिष्पाद्ये उत्तमा प्रतिपूरुषम्।।*                    

               (#यज्ञमीमांसायाम्) 


*#दक्षिणा_तत्काल_देवें—*


*#अर्थ—* दक्षिणा देने में एक मुहूर्तका विलंब करने पर दक्षिणा दुगुनी हो जाती है 


एक रात बीतने पर 6 गुनी 


तीन रात बीतने पर 10 गुनी 


1 सप्ताह व्यतीत होने पर 20 गुनी


 एक महीना बीतने पर लाख गुनी 


1 वर्ष व्यतीत होने पर करोड़ गुनी दक्षिणा हो जाती है।

जिसे यजमान कभी भी नहीं दे सकता।


इस प्रकार यजमानके द्वारा कराया गया कर्म भी निष्फल हो जाता है।


और वह यजमान दक्षिणा न देनेके पातकसे ब्रह्मस्वापहारी (ब्राह्मणका धन अपहरण करने वाला), कर्मका नाश करने वाला, अपवित्र, दरिद्र, व्याधि युक्त हो जाता है।


उसके घरसे लक्ष्मीजी भी कठिन शाप देकर अन्यत्र चली जाती हैं।

पितृगण भी उसके दिए हुए श्राद्ध, तर्पण आदिको ग्रहण नहीं करते।

और देवगण उसकी पूजा तथा आहुति स्वीकार नहीं करते।


 और अंतमें वह ब्रह्मस्वापहारी 

कुंभीपाक नामक नरकमें जाता है—


*मुहूर्ते समतीते च द्विगुणा सा भवेद् ध्रुवम्।*

*एकरात्रे व्यतीते तु भवेद्र सगुणा च सा।।*


*त्रिरात्रे वै दशगुणं सप्ताहे द्विगुणा तत:।*

*मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्रह्मणानां च वर्द्धते।।*


*संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत्।*

*कर्म तद् यजमानानां सर्वं वै निष्फलं भवेत्।।*


*तद् गृहाद्याति लक्ष्मीश्च शापं दत्वा सुदारुणम्।*

*पितरो नैव गृह्णन्ति तद्दत्तं श्राद्धतर्पणम्।।*


*#दक्षिणा_जरूर_लेवें—*


*दाता ददाति नो दानं ग्रहीता तन्न याचते।*

*उभौ तौ नरकं यातश्छिन्नरज्जुर्यथा घट:।।*


*#अर्थ—* देने वाला यदि दक्षिणा न देवे और ग्रहण करने वाला यदि दक्षिणा आदि न मांगे तो - ऐसी स्थितिमें दोनों ही नर्कके अधिकारी होते हैं।


जिस प्रकार रस्सी टूट जाने पर भरे हुए घटके साथ  उतनी भी जल में डूब जाता है उस घटके साथ उससे बंधी हुई उतनी रस्सी भी जाती है।


ऐसा नहीं है कि ये नियम अन्यों पर ही लागू होंगे, यदि कोई ब्राह्मण भी यज्ञ करवाता है तो उसे भी दक्षिणा देनेमें ये ही नियम पालन करना चाहिए


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