उपनिषद् में ईश्वर का विवरण
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*उपनिषद् में ईश्वर का विवरण*
"यद्वाचाऽनभ्युदितं, येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"
(केन० १/४)
जो वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं होता, जिससे वाणी का प्रकाश होता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिसका वाणी से सेवन किया जाता जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।
"यन्मनसा न मनुते, येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"
(केन० १/५)
जिसका मन से मनन नहीं किया जाता, जिसकी शक्ति से मन मनन करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिसका मन से मनन किया जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।
"यच्चक्षुषा न पश्यति, येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"
(केन. १/६)
जो आँख से नहीं देखा जाता, जिसकी शक्ति से आँख देखती है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो आँख से देखा जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।
"यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति, येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"
(केन. १/७)
जो कान से नहीं सुना जाता, जिससे कान सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो कान से सुना जाता है, वह ब्रह्म नहीं है |
"यत्प्राणेन न प्राणिति, येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"
(केन० १/८)
जो प्राण से प्राण के व्यापार में नहीं आता, जिससे प्राण अपना व्यापार करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो प्राण के व्यापार में आता है, वह ब्रह्म नहीं है ।
यह सुस्पष्ट शब्दों में बताया गया है कि परमात्मा आकार रहित होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने की वस्तु नहीं है । यदि इन्द्रियाँ समर्थ होती तो यह नहीं कहा जाता : --
"यतो वाचो निवर्तन्ते इन्द्रियाणि मनसा सह ।"
जहाँ से मन के साथ इन्द्रियाँ और वाणी बिना उसको प्राप्त किये ही लौट आते हैं । भला चेतन निराकार परमात्मा को ये जड़ इन्द्रियाॅं प्राप्त भी कैसे कर सकती है ?
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥
(कठोपनिषद् १/२/२२)
वह परमात्मा लोगों के अस्थिर शरीरों में रहकर भी शरीर-रहित हुआ स्थित है । उस महान् विभु/सर्वव्यापी परमात्मा को जानकर धीरपुरुष शोक नहीं करता |
एष सर्वेषु भूतेषु गूढ़ोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥
(कठोपनिषद् १/३/१२)
सभी भूतों अर्थात् प्राणियों और वस्तुओं में छिपा हुआ, यह परमात्मा चर्म-चक्षुओं से प्रत्यक्ष नहीं होता । सूक्ष्मदर्शी पुरुष ध्यान-योग लगाकर, सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा उसे देखते हैं |
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः |
(मुण्डकोपनिषद् १/१/६)
वह जो परमात्मा अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, और चक्षु, श्रोत्र इत्यादि से रहित है, एवं हाथ-पैर इत्यादि कर्मेन्द्रियों से भी रहित है, वह नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म, अव्यय है तथा समस्त भूतों का कारण है, उसे धीर पुरुष सब ओर देखते हैं |
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ॥
(मुण्डकोपनिषद् २/१/२)
दिव्य और अमूर्त वह पुरुष, बाहर एवं भीतर होकर भी जन्मादि से रहित है । वह प्राण-रहित और मन-रहित और सर्वथा विशुद्ध है, एवं अक्षर/अविनाशी प्रकृति और जीव से भी सूक्ष्म वा श्रेष्ठ है |
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥
(मुण्डकोपनिषद् ३/१/८)
वह ब्रह्म न नेत्र से ग्रहण किया जा सकता है, न ही वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से, न केवल तप अथवा केवल कर्म से ही । ज्ञान के प्रसाद से विशुद्ध चित्तवाला ही ध्यान करता हुआ उस कलारहित ब्रह्म को साक्षात्कार करता है |
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।
अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः |
(मुण्डकोपनिषद् ३/१/५)
यह परमात्मा सदैव ही सत्य, तप, सम्यक् ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । जिनके दोष क्षीण हो गये हैं, वे यत्नशील पुरुष शरीर के भीतर ही इस ज्योतिर्मय शुभ्र परमात्मा को देखते हैं |
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् |
(श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१६)
वह सर्वव्यापी परमात्मा दूध में घी की भाँति सबमें विद्यमान है, और आत्मविद्या एवं तप उसकी प्राप्ति का मूल है । वह उपनिषद् में कहा गया परम् ब्रह्म है |
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/१७)
वह नेत्र, कर्ण, हाथ-पैर आदि समस्त इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त इन्द्रियों के विषय-गुणों को जानने वाला है अर्थात् बिना इन्द्रियों के वह सब इन्द्रियों के देखना, सुनना आदि कार्यों को कर लेता है । वह सबका स्वामी, नियन्ता और सबका बृहद् आश्रय है |
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/१९)
वह बिना हाथ के भी सबका ग्रहण करने वाला, पैर से रहित होकर भी वेगवाला है । आँखों से रहित होकर भी देखता है, और कानों से रहित होकर भी सुनता है । वह प्रत्येक जानने योग्य वस्तु को जानता है, परन्तु उसका अन्त जानने वाला अन्य कोयी नहीं है । उसे ज्ञानीजन महान्, श्रेष्ठ आदि कहते हैं |
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/१६)
वह सब जगह हाथ-पैर वाला अर्थात् सब ओर गति वाला है । सब जगह आँख वाला अर्थात् सब ओर देखने वाला है । सर्वत्र सिर और मुख वाला अर्थात् सब कुछ जानने वाला है । और सब जगह कानों वाला अर्थात् सर्वत्र सुनने वाला है । वही लोक में सबको व्याप्त करके स्थित है |
न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/९)
इस जगत् में कोयी उस परमात्मा का स्वामी नहीं है, उसका कोयी शासक नहीं है एवं उसका कोयी लिङ्ग/चिह्न भी नहीं है । वह जगत् का निमित्त-कारण है अर्थात् संसार को बनाने वाला है । वह इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवों का अधिपति है । उसका न कोयी उत्पत्तिकर्ता है, न कोयी अधिपति |
तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिरापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।
एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१५)
जिस प्रकार तिलों में तैल, दही में घी, स्रोतों में जल और अरणियों में अग्नि क्रमशः पेरने, बिलोने, खोदने और रगड़ने से प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार जो सत्य और तप के द्वारा परमात्मा को ध्यान-दृष्टि से देखता है, वह आत्मा में ही परमात्मा को प्राप्त करता है |
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानां एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/१३)
जो नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन अर्थात् सर्वोपरि है, और एक अकेला ही सम्पूर्ण प्राणियों को उनके कर्मों का भोग प्रदान करता है, उस साँख्य एवं योग द्वारा अनुभूतिगम्य, सब जगत और शरीरों के कारणरूप/बनाने-वाले देव को जानकर, उपासक सम्पूर्ण पाशों/बन्धनों से मुक्त हो जाता है |
अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥
(कठोपनिषद् १/२/२०)
अणु से भी अणु और महान् से भी महान् परमात्मा, जीव की हृदय-गुहा में स्थित है । निष्काम और शोकरहित साधक, परब्रह्म के प्रसाद/कृपा से ही, उस परमात्मा की महिमा को देखता है |
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