ब्रह्मयज्ञ अथवा सन्ध्योपासन
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*ब्रह्मयज्ञ अथवा सन्ध्योपासन*
गायत्री-मन्त्र का उपदेश करके जो स्नान, आचमन, प्राणायाम, आदि क्रियाएँ हैं, उन्हें सिखलावें | स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होती है | आचमन- उतने जल को हथेली में लें कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक ही पहुँचे, न उससे अधिक और न न्यून | फिर हथेली के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा कर आचमन करें | आचमन से कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृति थोड़ी-सी होती है | तत्पश्चात् मार्जन अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अँगों पर जल छिड़कें | इससे आलस्य दूर होता है | जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करें | पुनः समन्त्रक प्राणायाम, अघमर्षण, अर्थात् पाप करने की इच्छा भी न करें, पश्चात् मनसा-परिक्रमण, उपस्थान तथा परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलावें |
यह सन्ध्योपासन एकान्त, शान्त स्थान में एकाग्रचित्त होकर करें | संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही कालों में करें, क्योंकि दो ही रात-दिन की सन्धि बेलाएँ हैं, अन्य नहीं | न्यून-से-न्यून एक घंटा ध्यान अवश्य करें | जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें | सन्ध्योपासन को ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं |
*उपासना* दो प्रकार की होती है - सगुण और निर्गुण ।
जगत को रचनेवाला, वीर्यवान् तथा शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयम्भू इत्यादि गुणों से युक्त होने से परमेश्वर *सगुण* है ।
और अकाय, अव्रण, अस्नाविर इत्यादि गुणों से युक्त होने से वह *निर्गुण* कहलाता है ।
ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, सनातन, न्यायकारी, दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मंगलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को *सगुणोंपासना* कहते हैं ।
और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता, निराकार अर्थात आकारवाला कभी नहीं होता, अकाय अर्थात शरीर कभी नहीं धरता, अव्रण अर्थात जिसमें छिद्र कभी नहीं होता, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धवाला कभी नहीं होता, जिसमें दो, तीन आदि संख्या की गणना नहीं बन सकता, जो लम्बा चौड़ा हल्का भारी कभी नहीं होता, इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उसका स्मरण करने को *निर्गुण उपासना* कहते हैं ।
इससे सिद्ध हुआ कि जो अज्ञानी मनुष्य ईश्वर के देहधारण करने से सगुण और देह धारण नहीं करने से निर्गुण उपासना कहते हैं, उनकी कल्पना वेद शास्त्रों के प्रमाणों और विद्वानों के अनुभव से विरुद्ध होने के कारण मान्य नहीं है |
*संध्योपासना करने के लाभ*
परमेश्वर से विद्या प्राप्त कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए सन्ध्योपासना का विधान किया गया है । सन्ध्या करने से ज्ञान की प्राप्ति के साथ अनेक लाभ भी होते हैं ।
स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती जी ने इसकी चर्चा अपनी पुस्तक ‘सन्ध्या-प्रभाकर’ में की है । वह कहते हैं कि ईश्वर आराधना तथा ओ३म् एवं वेद मन्त्रों का जप में कोई मिट-अमिट, पवित्रता-अपवित्रता, सूतक-असूतक का प्रश्न नहीं है ।
आर्य -अनार्य, रोगी- अरोगी, धनी-निर्धन, ध्यानी-ज्ञानी, स्त्री- पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सभी को सन्ध्योपासना करने का एक समान अधिकार है ।
सन्ध्योपासना करने से हृदय के मल व विकार दूर होकर अन्तःकरण शुद्ध होता है, दुःख दूर होकर सुख की प्राप्ति होती है ।
महर्षि पतंजलि ने उपासना के लाभ बताते हुए लिखा है --
ततः प्रत्यक् चेतनाधिगमोण्य्पन्तराया भावश्य ।
(योग० १-२९)
ईश्वरोपासना से ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त होता है, जिससे व्याधि आदि नौ प्रकार के विघ्न नहीं होते और बुद्धि-वृत्तियों के अनुसार अनुभव करने वाले जीवात्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का दर्शन भी हो जाता है । यही स्वरूप दर्शन ही परमात्म दर्शन में भी कारण बनता है ।
सन्ध्योपासना करने में निम्न नौ प्रकार के विघ्न दूर होते हैं :-
व्याधि, अकर्मण्यता-कर्म करने की योग्यता का न होना, संशय, प्रमाद-समाधि के साधनों के अनुष्ठान में प्रयत्न तथा चिन्ता न करना, आलस्य, चित्त की विषयों में तृष्णा का बना रहना, विपरीत ज्ञान, समाधि की प्राप्ति न होना और समाधि अवस्था को प्राप्त होकर भी चित्त का स्थिर न होना ।
सन्ध्योपासना से आयु भी बढ़ती है । महाभारत में आया है -
ऋषयो नित्य सन्ध्यत्वात् ।
दीर्घायुरवाप्नुवन् ।।
(महाभारत अनु० १०४)
नित्य प्रति सन्ध्या करने से ऋषियों ने दीर्घ आयु प्राप्त की । इस कारण से मनुष्यों को सन्ध्योपासना अवश्य करनी चाहिये ।
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