यजुर्वेद पाठ के लाभ

 यजुर्वेद पाठ के लाभ निम्नलिखित हैं: 1. *आध्यात्मिक विकास*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से आध्यात्मिक विकास होता है, और व्यक्ति के जीवन में आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है। 2. *शांति और समृद्धि*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है। 3. *नकारात्मक ऊर्जा का नाश*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है, और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। 4. *स्वास्थ्य लाभ*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से स्वास्थ्य लाभ होता है, और व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है। 5. *धन और समृद्धि*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से धन और समृद्धि की प्राप्ति होती है। 6. *संतान सुख*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से संतान सुख की प्राप्ति होती है। 7. *वैवाहिक जीवन में सुख*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से वैवाहिक जीवन में सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। 8. *व्यवसाय में सफलता*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से व्यवसाय में सफलता और समृद्धि की प्राप्ति होती है। 9. *बाधाओं का नाश*: यजुर्वेद पाठ के माध्यम से बाधाओं का नाश होता है, और व्यक्ति के जीवन में सफलता और समृद्धि...

यज्ञ चिकित्सा, यज्ञोपैथी या यज्ञ चिकित्सा पद्धति, अग्नि की ऊष्मीय ऊर्जा और मंत्रों के ध्वनि कंपन का इस्तेमाल करके बीमारियों का इलाज करने का एक तरीका है


  • यज्ञ चिकित्सा में, विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए अग्नि-कुंड में हर्बल और वनस्पति औषधियों से हवन किया जाता है. 
  • हवन के धुएं और वाष्प को सांस के ज़रिए शरीर में लेने से रोग की जड़ें कमज़ोर होती हैं. 
  • यज्ञ चिकित्सा के ज़रिए कई तरह की बीमारियों का इलाज किया जा सकता है, जैसे कि न्यूरोसिस, मनोविकृति, सिज़ोफ़्रेनिया, अवसाद, विषाद, और हिस्टीरिया. 
  • यज्ञ चिकित्सा के बारे में ज़्यादा जानकारी के लिए, वैदिक और आयुर्वेदिक ग्रंथों का अध्ययन किया जा सकता है. 
यज्ञ चिकित्सा से जुड़ी कुछ और बातेंः

यज्ञ एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसका उद्देश्य अग्नि की ऊष्मीय ऊर्जा और मंत्रों के ध्वनि कंपन की सहायता से बलि दिए गए पदार्थ के सूक्ष्म गुणों का बेहतरीन उपयोग करना है। यज्ञ की प्रक्रिया में, विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए अग्नि-कुंड या ईंट और मिट्टी के ढांचे में विशिष्ट प्रकार की लकड़ी की अग्नि में हर्बल और वनस्पति औषधीय आहुति दी जाती है जिसे (यज्ञ) कुंड कहा जाता है। यज्ञ-अग्नि में धीरे-धीरे दहन, उर्ध्वपातन और सबसे प्रमुख रूप से, बलि दिए गए हर्बल और वनस्पति औषधीय और पौष्टिक पदार्थों का वाष्प अवस्था में परिवर्तन होता है।

  • शरीर के प्रत्येक भाग तक सीधी पहुंच।
  • दर्द रहित, जोखिम रहित, सामंजस्यपूर्ण प्रभाव
  • मनोदैहिक विकारों के लिए उत्कृष्ट उपाय
  • न्यूरोसिस, मनोविकृति, सिज़ोफ्रेनिया, अवसाद, विषाद, हिस्टीरिया का उपचार।


यज्ञ की गरिमा कायम करने के लिए वर्षों से अध्ययन और अनुसंधान के जो प्रयत्न किए जा रहे हैं, उनके निष्कर्ष विलक्षण हैं। इस दिशा में रोगों के उपचार के नतीजों से प्रभावित और प्रेरित होकर यज्ञोपैथी के नाम से एक नई चिकित्सा पद्धति या किसी समय प्रचलित यज्ञ चिकित्सा का नया उन्मेष ही हो रहा है। आयुर्वेद और शास्त्रों में जिस रोग की जो औषधियां बताई गई हैं, उन्हें लेने के साथ ही समिधाओं के साथ नियमित रूप से हवन भी किया जाता रहे, तो कम समय में अधिक लाभ मिलता है

यज्ञ का महत्व
यज्ञ चिकित्सा का मूल सिद्धांत यह है कि स्थूल के बजाय सूक्ष्म होती हुई वस्तुएं या औषधियां ज्यादा असरदार होती जाती हैं। विशिष्ट मंत्रों के साथ जब औषधि युक्त सामग्री से हवन किया जाता है, तो वह हवन का धुआं रोम छिद्रों और नासिका से शरीर में प्रवेश करता है और रोग की जड़ें कटने लगती हैं। आरोग्य होने के लिए जो यज्ञ किए जाते हैं, उन्हें ‘भैषा यज्ञ’ कहते हैं। यज्ञ के संचालक विद्वान मर्मज्ञ ब्रह्मा होते थे। ब्रह्मा अर्थात कोई चार मुंह वाले विष्णु की नाभि से निकले कमल पर बैठे देवसत्ता नहीं। ब्रह्मा से आशय उस विद्वान मनीषी से है, जो यज्ञ विधि का सूक्ष्म परीक्षण कर जान लेते थे कि वायु और आकाश में क्या विकार आ रहा है, उससे कौन से रोग फैल सकते हैं, उसके लिए किन वनौषधियों के हवन का आयोजन होता ह
यज्ञ की गरिमा कायम करने के लिए वर्षों से अध्ययन और अनुसंधान के जो प्रयत्न किए जा रहे हैं, उनके निष्कर्ष विलक्षण हैं। इस दिशा में रोगों के उपचार के नतीजों से प्रभावित और प्रेरित होकर यज्ञोपैथी के नाम से एक नई चिकित्सा पद्धति या किसी समय प्रचलित यज्ञ चिकित्सा का नया उन्मेष ही हो रहा है। आयुर्वेद और शास्त्रों में जिस रोग की जो औषधियां बताई गई हैं, उन्हें लेने के साथ ही समिधाओं के साथ नियमित रूप से हवन भी किया जाता रहे, तो कम समय में अधिक लाभ मिलता है।
यज्ञ का महत्व
यज्ञ चिकित्सा का मूल सिद्धांत यह है कि स्थूल के बजाय सूक्ष्म होती हुई वस्तुएं या औषधियां ज्यादा असरदार होती जाती हैं। विशिष्ट मंत्रों के साथ जब औषधि युक्त सामग्री से हवन किया जाता है, तो वह हवन का धुआं रोम छिद्रों और नासिका से शरीर में प्रवेश करता है और रोग की जड़ें कटने लगती हैं। आरोग्य होने के लिए जो यज्ञ किए जाते हैं, उन्हें ‘भैषा यज्ञ’ कहते हैं। यज्ञ के संचालक विद्वान मर्मज्ञ ब्रह्मा होते थे। ब्रह्मा अर्थात कोई चार मुंह वाले विष्णु की नाभि से निकले कमल पर बैठे देवसत्ता नहीं। ब्रह्मा से आशय उस विद्वान मनीषी से है, जो यज्ञ विधि का सूक्ष्म परीक्षण कर जान लेते थे कि वायु और आकाश में क्या विकार आ रहा है, उससे कौन से रोग फैल सकते हैं, उसके लिए किन वनौषधियों के हवन का आयोजन होता है?

यज्ञ से सेहत में होता है सुधार
रोगी के शरीर में कौन-सी व्याधि बढ़ी हुई है, कौन से तत्व घट बढ़ गए हैं? उनकी पूर्ति और शरीर के संतुलन को साधने के लिए किन औषधियों की आहुति दी जानी चाहिए? इस तरह के विवेक विवेचन से आहुतियां दिलाकर हवन कराया जाता था। भावप्रकाश, निघंटु एवं अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में यज्ञ-चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली जिन औषधियों को प्रमुखता दी गई है, उनमें अगर, तगर, गुग्गुल, ब्राह्मी,  बड़ी इलायची, पुनर्नवा, नागकेसर, चंदन, कपूर, देवदार और मोथा आदि मुख्य हैं। सभी औषधियां समान मात्रा में ली जाती हैं। इन्हें कूट-पीसकर इनके दसवें भाग के बराबर शक्कर और उतना ही घी मिलाकर हवन करने से शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में लाभ मिलता है। वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा भी अब यह सिद्ध हो चुका है। आवश्यकतानुसार दिन में तीन बार और रात को एक-दो बार किसी पात्र में अग्नि रखकर थोड़ी-सी औषधीय हवन सामग्री थोड़ी देर के लिए रोगी के निकट धूप की भांति जलाई जा सकती है। हवन करते समय तैयार औषधियों में दसवां भाग शर्करा एवं दसवां भाग घृत मिला लेना चाहिए। कोई औषधि या वस्तु अधिक महंगी हो अथवा अनुपलब्ध हो, तो उसकी पूर्ति अन्य दूसरी औषधियों की मात्रा बढ़ाकर की जा सकती है।

यज्ञ में गायत्री मंत्र का महत्व
शास्त्रों में सूर्य को स्वास्थ्य का केंद्र माना गया है। सूर्य में रोग-निवारण की अद्भुत शक्ति है। निरोगता, बलिष्ठता एवं दीर्घायु के लिए 'श्री सूर्य गायत्री' का जाप भी किया जा सकता है। गहन वैज्ञानिक अध्ययन-अनुसंधानों के आधार पर पाया गया है कि जो औषधियां आयुर्वेद में जिन रोगों के लिए गुणकारी मानी गई हैं, उन्हें हवन सामग्री के रूप में घृत और शक्कर मिलाकर 'श्री सूर्य गायत्री' मंत्र के साथ रोगी के निकट हवन करने से रोगी को अधिक लाभ मिलता है। यज्ञोपचार प्रक्रिया में रोगानुसार गायत्री महामंत्र तथा उससे संबंधित चौबीस गायत्री मंत्रों द्वारा हवन किया जाता है। यज्ञ चिकित्सा करते समय उन्हीं औषधियों को चूर्ण के रूप में सुबह-शाम एक चम्मच लेने से लाभ मिलता है। हवन के बाद पास रखे जल में दूर्वा, कुश अथवा पुष्प डुबोकर गायत्री मंत्र पढ़ते हुए रोगी पर अभिसिंचन करना चाहिए। साथ ही यज्ञ की भस्म मस्तक, हृदय, कंठ, पेट नाभि एवं दोनों भुजाओं पर लगानी चाहिए। इसी प्रकार घृतपात्र में जो घृत बचा रहता है, उसमें से कुछ बूंदें लेकर रोगी के मस्तक एवं हृदय पर लगाना चाहिए। सामान्यतः देखा गया है कि इन प्रयोगों से रोगी को लाभ मिलता है। इसका प्रभाव रोगी के शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में पड़ता है।

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