प्रश्न―यह #नमस्ते कहाँ से चली और इसका अर्थ क्या है?
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प्रश्न―यह #नमस्ते कहाँ से चली और इसका अर्थ क्या है?
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उत्तर―सृष्टि के आदि से लेकर महाभारत पर्यन्त सब मनुष्य परस्पर में नमस्ते ही करते थे। उनके पश्चात् जब अनेक मत मतान्तर और अनेक मजहब दुनियाँ में फैले, तो उधर सबने अलग-२ शब्द नियत किये। किसी ने 'गुड मार्निंग' 'गुड नाइट' गुडवाई किसी ने 'अस्लाम अलैकुल' 'वालेकम सलाम' 'आदाब अर्ज' आदि-२ अनेक शब्द विधर्मियों और विदेशियों ने कल्पित किए। जय शिव, जय हरी, जय गोविन्द, जय राधेश्याम, जय राम जी, जय कृष्ण जी, प्रणाम, आदि अनेक प्रयोग जारी किये। महाभारत से पहले भू-मण्डल पर आर्य लोगों का अखण्ड राज्य था लोग वैदिक धर्मी थे। परस्पर में नमस्ते ही किया करते थे। अब ऋषि दयानन्द की कृपा से लोग प्राचीन वैदिक सिद्धान्त को पुनः समझने लग गये हैं और परस्पर में नमस्ते करने लगे हैं। नमस्ते का अर्थ है―'मैं तुम्हारा मान्य करता हूँ, आदर करता हूँ।'
प्रश्न―क्या वेदों में नमस्ते करना लिखा है? और जय रामजी की, जय श्री कृष्ण की करने में नुकसान ही क्या है?
उत्तर―वेदों में ही क्या बाल्मीकि रामायण, महाभारत, उपनिषद, गीता आदि समस्त ग्रन्थों में नमस्ते ही लिखा हुआ मिलता है। कहीं भी जय राम जी, जय कृष्णजी की, जय शिव की आदि-२ लिखा हुआ नहीं मिलता। राम और कृष्ण स्वयं नमस्ते करते थे, क्योंकि वे सब वैदिक-धर्मी थे। अगर तुमसे कोई यह पूछे कि राम और कृष्ण के उत्पन्न होने से पहले लोग क्या करते थे तो इसका उत्तर क्या दे सकते हो? राम को उत्पन्न हुए लगभग १० लाख वर्ष हुए और कृष्ण को उत्पन्न हुए लगभग ५ हजार वर्ष हुए। सृष्टि तो इससे पहले की है। सृष्टि को उत्पन्न हुए तो १,९६,०८,५३,१२४ वर्ष हो चुके है।
तुम्हारा यह कहना कि जय रामजी की, जय कृष्णजी की कहने में नुकसान क्या है? नुकसान एक नहीं अनेक हैं। प्रथम तो लोगों में साम्प्रदायिक भावना जागृत होती है। दूसरे इन प्रयोगों में परस्पर के सम्मान की कोई भावना नहीं। मानव समाज में तो कोई उम्र में किसी से बड़ा है, कोई उम्र में छोटा है और कोई उम्र में बराबर। जब परस्पर में एक दूसरे से मिलना हो तो एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान का भाव प्रकट करना मनुष्यता और सभ्यता का चिन्ह है। ऐसा न करके जय रामजी की, जय कृष्णजी की, या जय शिव की करना शोभास्पद प्रतीत नहीं होता। फर्ज करो तुम्हें अपनी नानी, मामी या बुआ, फूफा के दर्शन हुए और उस समय उन सबसे तुमने 'जयरामजी की' या 'जय कृष्णजी की' कहा, तो ऐसा कहने में तुमने उनके सम्मान में क्या शब्द कहे? क्यों जय रामजी की बोलने में राम की जय और जय श्रीकृष्ण जी बोलने में कृष्ण की जय हुई। उनके आदर और सम्मान में तो कुछ न हुआ। 'नमस्ते' कहने से यह बात निकली 'मैं तुम्हारा मान करता हूँ।' मैं तुम्हारा आदर करता हूँ।' आदर हर एक का करना चाहिए छोटों का छोटा जैसा, बड़ों का बड़ा जैसा। बच्चे का भी आदर है, और बड़े का भी आदर है, माता-पिता का भी आदर है, पुत्र–पुत्री का भी आदर है।
प्रश्न―राम की जय और कृष्ण की जय बोलने में राम और कृष्ण का नाम जुबान पर आता है इसमें नुकसान ही क्या ?
उत्तर―नाम तो आता है पर क्या ये जरुरी है कि एक दूसरे के सम्मान के समय भी जय रामजी की और जय कृष्णजी की कहा जाये? क्या हर समय हर एक शब्द का बोलना उचित होता है? समय पर राम की और कृष्ण की जय बोलना भी अच्छा है। पूरे विश्व में सभी आर्य समाजों व गुरुकुलो में प्रातःकाल यज्ञ के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र व योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र की जय बोली जाती है। जहाँ राम और कृष्ण का चरित्र वर्णन किया जा रहा हो, वहाँ कंस और रावण के मुकाबले पर राम–कृष्ण की जय बोलना अत्यन्त सुन्दर और शोभायमान प्रतीत होता है।
प्रश्न―क्या अच्छे शब्द हर समय नहीं बोले जा सकते हैं?
उत्तर―चाहे कितने ही सुन्दर शब्द हों, वे समय पर ही अच्छे मालूम देते हैं। देखो!'राम नाम सत्य है' कितना सुन्दर वाक्य है। परन्तु हर समय अच्छा मालूम नहीं देता। यदि हर समय मालूम दे तो जरा विवाह के अवसर पर इसे बोलकर देखो फिर पता चले कि यह वाक्य कितना भयंकर है। इस वाक्य के बोलने में कितनी बुराइयाँ और गालियाँ पल्ले पड़ती हैं, जरा अजमा कर कभी देखो तो सही।
प्रश्न―क्या प्रत्येक को नमस्ते करना चाहिए? बेटा बाप को नमस्ते करे तो ठीक भी है, परन्तु बाप बेटे को नमस्ते करे, माँ बेटी को नमस्ते करे, छोटे बड़े को, बड़ा छोटे को, नीच, ऊँच को, ऊँच नीच को, भला यह क्या बात हुई?
उत्तर―अच्छा यह बताओ, कि एक मनुष्य को अपनी माता से प्रेम करना चाहिए या नहीं?
दूसरा व्यक्ति―हाँ, करना चाहिए।
आर्यसमाजी―अपने भाई से भी प्रेम करना चाहिए या नहीं?
दूसरा व्यक्ति―हाँ करना चाहिए।
आर्यसमाजी―अपनी पुत्री से भी प्रेम करना चाहिए या नहीं?
दूसरा व्यक्ति―हाँ, करना चाहिए।
आर्यसमाजी―अपनी पत्नि से भी प्रेम करना चाहिए या नहीं?
दूसरा व्यक्ति―हाँ करना चाहिए।
आर्यसमाजी―अब मैं पूछता हूँ, सबसे ही प्रेम करना चाहिए, यह क्या बात हुई? माता से भी प्रेम, बहिन से भी प्रेम, पुत्री से भी प्रेम, पति से भी प्रेम, पिता, पुत्र और भाई से भी प्रेम। सबसे प्रेम ही प्रेम! सबके लिए एक ही शब्द। भला यह कहाँ की सभ्यता है कि प्रत्येक से प्रेम करें
दूसरा व्यक्ति―पति, पुत्र, माँ, मित्र, बेटी आदि से प्रेम करने में भावनायें तो अलग-२ हैं?
आर्यसमाजी―इसी प्रकार नमस्ते करने की भावनायें अलग-२ हैं। जैसे माता-पिता से प्रेम करते हैं तो श्रद्धा प्रकट करते हैं, भाई-बहिन से प्रेम करते हैं तो स्नेह प्रकट करते हैं, पति से प्रेम करते समय 'प्रणय' की भावना प्रकट करते हैं, वह ईश्वर से प्रेम करते हैं तो भक्ति प्रकट करते हैं। इसी प्रकार माता-पिता से नमस्ते करते हैं तो आदर प्रकट करते हैं। पुत्र-पुत्री से नमस्ते करते हैं तो आशीष या आशीर्वाद देते हैं। बराबर वालों से नमस्ते करते हैं तो प्रेम प्रकट करते हैं। बड़ों का आदर, बराबर वालों से प्रेम, छोटों पर दया यह सारी भावनायें 'नमस्ते' शब्द में मौजूद हैं। परन्तु इन समस्त भावनाओं की मन्शा एक ही है―प्रत्येक का आदर, प्रत्येक का सत्कार जैसे श्रद्धा, स्नेह, प्रणय, आदि शब्द प्रेम के ही दूसरे रुप हैं, इसी प्रकार आदर, आशीर्वाद प्रेम आदि भी नमस्ते के दूसरे रुप हैं।
दूसरा व्यक्ति―मित्र, आपने यह शंका निवारण कर दी, इसके लिए धन्यवाद।
#सनातनहमारीपहचान
#आर्य
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