संस्कार (Sanskar)
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प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व था | संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था | ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे |
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों ( षोडश संस्कार ) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अंत्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं |
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यहाँ 16 संस्कारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -----------
1. गर्भाधान संस्कार → यह संस्कार किसी के माता -पिता के दायित्व की पूर्ति और मानव जाति की निरंतरता के लिए किया जाता है | हमारें शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला संस्कार है | गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरांत प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है | गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति हैं | उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए | वैदिक कल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था |
2. पुंसवन संस्कार → गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है | गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है | हमारे विद्वानों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है | गर्भस्थ शिशु से सम्बंधित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है | पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है |
3. सीमन्तोनयन संस्कार → सीमन्तोनयन का अभिप्राय है सौभाग्य सम्पन्न होना | गर्भपात रोकने के साथ - साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है | इस संस्कार के के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिए सौभाग्यवती स्त्रियाँ गर्भवती की मांग भरती हैं | यह संस्कार गर्भधारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है |
4. जातकर्म संस्कार → नवजात शिशु के स्वागत के लिए यह संस्कार किया जाता है | इस दैवी जगत से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा , बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खंड से मधु एवं घृत वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है | यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है | दो बूंद घी तथा छः बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है |
5. नामकरण संस्कार → जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है | इस संस्कार में नवजात बच्चे का नाम रखा जाता है | ऐसा कहा जाता है कि कर्मों की पहचान नाम से होती है | ऐसे में नाम सोच समझ कर रखा जाना बहुत आवश्यक हैं | आर्य समाज में किसी भी शिशु का नामकरण पूरे विधि विधान से किया जाता है | नामकरण संस्कार से जातक की आयु और तेज में बढ़ोत्तरी होती है | साथ ही अपने नाम, आचरण, कर्म से जातक ख्याति प्राप्त करता है और अपनी अलग पहचान बनाता है |
6. निष्क्रमण संस्कार → निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना | इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखने का विधान है | भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है | जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है | शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत होता है |
7. अन्न-प्राशन संस्कार → अन्न का अर्थ 'भोजन ' और प्राशन का अर्थ है 'खाना , खिलाना ' इस प्रकार बच्चे को पहली बार ठोस भोजन देना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है | अन्न को शास्त्रों में प्राण कहा गया है | अन्न को ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए | अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है | छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए | खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है |
8. चूड़ाकर्म संस्कार → चूड़ाकर्म संस्कार को मुण्डन संस्कार भी कहा जाता है | मुण्डन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों हटाकर बालक को प्रखर बनाना है | हमारे आचार्यों ने बालक के पहले, तीसरे, या पांचवे वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है | वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है |
9. कर्णवेध संस्कार → कान के निचले हिस्से को छेदना कर्णवेध संस्कार कहलाता है | इसका समय तीन से पांच वर्ष के मध्य होता है | इस संस्कार का मूल उद्देश्य शारीरिक व्याधि को दूर करना है | इसके साथ श्रवण शक्ति भी बढ़ती है |
10. उपनयन संस्कार → उपनयन संस्कार को यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है | यह संस्कार 8 वर्ष की उम्र में किया जाता है | यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है जो ॐ (अ उ म् ) के तीन अक्षरों का प्रतिनिधित्व करते है | तीन धागे जीवन के तीन अनुशासन का भी प्रतीक हैं, जो ज्ञान, क्रिया और भक्ति हैं | उपनयन संस्कार बौद्धिक विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेद माता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। यज्ञोपवीत संस्कार करके ही बालक विशेष अध्ययन के लिए गुरुकुल जाता था | यज्ञोपवीत संस्कार से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था | इस संस्कार का मूल उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है |
11. वेदारम्भ संस्कार → यह संस्कार उपनयन संस्कार के तुरंत बाद किया जाता है। अब बच्चा छात्र बन जाता है | बच्चा अब वेदों और अन्य धार्मिक पाठों के साथ-साथ गणित और विज्ञान सहित अन्य शाखाओं से ज्ञान प्राप्त करेगा | इस प्रकार बच्चा आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक रूप से भी जीवन में प्रगति करने में सक्षम होगा |
12. समावर्तन संस्कार → गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था | इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था | यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था | इसमें सुगन्धित पदार्थों एवं औषध्यादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ो के जल से स्नान करने का विधान है | इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था | जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था | इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे | इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था | सुन्दर वस्त्र और आभूषण धारण करता था तथा आचार्यों एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था |
13. विवाह संस्कार → विवाह संस्कार सोलह वैदिक संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कारों में से एक है | यही वह नींव है जो एक समन्वित पारिवारिक जीवन का आधार बनती है | प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है | यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है | वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक़्वता आ जाती थी तो उसे गृहस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था |
14. वानप्रस्थ संस्कार → इक्यावन वर्ष की आयु में एक व्यक्ति सभी आजीविका को त्यागकर वानप्रस्थ संस्कार करता है जिससे वह व्यक्तिगत आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करेगा | परिवार की सारी जिम्मेदारी बच्चों को दी जाएगी |
15. संन्यास संस्कार → यह संस्कार पचहत्तर वर्ष की आयु में किया जाता है | इस संस्कार में एक व्यक्ति सभी भौतिक चीजों को त्याग देता है और ईश्वर पर ध्यान और चिंतन का जीवन व्यतीत करना शुरू कर देता है |
16. अन्त्येष्टि संस्कार → अन्त्येष्टि संस्कार अंतिम संस्कार है इसे अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है | जब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब यह संस्कार अंतिम संस्कार के रूप में किया जाता है | हृदय में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है | धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शांत हो जाती हैं | हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है | जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है | प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है | उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है | मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है |
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